उत्तराखंड के पहाड़ी गांवों से पलायन से मैदानी जिलों में आबादी बढ़ रही है। एक कहावत मशहूर है कि पहाड़ का पानी और पहाड़ की जवानी कभी यहां के काम नहीं आती, चिकित्सा एवं रोजगार की कमी, सड़क मार्ग का न होना, सरकारी स्कूलों में पढाई का स्तर गिरना अर्थात् शिक्षा की समुचित व्यवस्था का अभाव और खेती में आने वाली मुश्किलों जैसे जंगली जानवरों से होने वाले नुकसान, नरभक्षी बाघ के आतंंक ने हमेशा से यहां के लोगों को अपने घर छोडऩे के लिए मजबूर किया है। उत्तराखंड में पलायन अब इस हद तक पहुंच गया है कि यहां के गांव तेजी से वीरान होते जा रहे हैं। हालांकि सरकार का कहना है कि इन गांवों को फिर बसाने की कोशिशें हो रही हैं।
साल 2000 में उत्तराखंड अलग राज्य बनने के बाद गांवों से पलायन में और तेजी आई है। 2001 और 2011 की जनगणना के आंकड़ों पर नजर डालें तो राज्य के 75 प्रतिशत गांव पलायन की वजह से खाली होने की कगार पर पहुंच चुके हैं। जनसंख्या के आंकड़े दर्शाते हैं कि 2001 से 2011 के बीच उत्तराखंड की आबादी 19.17 प्रतिशत बढ़ी है, लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में यह वृद्धि सिर्फ 11.34 प्रतिशत है जबकि शहरी क्षेत्रों में 41.86 प्रतिशत रही।चौंकाने वाली बात है कि पहाड़ी विकासखंडों में आबादी घटी है जबकि मैदानी क्षेत्रों के विकासखंडों में आबादी आश्चर्यजनक रूप में बढ़ी है।
सीमांत क्षेत्रों के गांवों से होने वाला पलायन गंभीर समस्या है, जिसकी वजह से ये गांव वीरान होते जा रहे हैं. इस मुद्दे की ओर ध्यान खींचते हुए भूतपूर्व गवर्नर डॉ. अजीज कुरैशी ने कहा था कि अगर पलायन को नहीं रोका गया तो सीमांत क्षेत्रों पर चीन कभी भी कब्जा कर लेगा. पलायन को रोकने के लिए पूर्व आइएएस अधिकारी सुरेंद्र पांगती उपाय सुझाते हैं, ''पलायन रोजगार के अभाव में होता है और इसे पर्यटन, तीर्थाटन और जड़ी बूटी उत्पादन से दूर किया जा सकता है।'' सबसे बड़ी परेशानी यह है कि सरकारी कर्मचारी पहाड़ पर नहीं जाना चाहते है। ऐसे स्थानों पर नियुक्ति पनिशमेंट पोस्टिंग मानी जाती है।यही वजह है कि राज्य के वार्षिक प्लान तक का पैसा खर्च करना टेढ़ी खीर बन गया है। योजना आयोग के समक्ष 12वीं पंचवर्षीय योजना का वार्षिक प्लान 2012-13 रखते हुए खुद राज्य सरकार ने माना था कि 2011-12 में योजनाओं के लिए स्वीकृत 7,800 करोड़ रु. में से सिर्फ 5,165.83 करोड़ रु. ही खर्च हुए हैं।गाँव के लोग जो पहले से ही अपने व्यवसाय या नौकरी करने शहरों की तरफ आये वो लोग अपने बुढापे में गाँव में चले जायें या सरकार गाँव में रहने वाले लोगों की पलायन रोकने सम्बन्धी समीक्षा कर, कोई ठोस कदम उठाये तो पलायन कुछ हद तक रूक सकता है।